Friday, October 14, 2011

ग़ज़ल

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ग़ज़ल
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साज़े दिल धुन छेडता है दर्द की
अब ग़ज़ल ही है दवा हर मर्ज़ की

जब से मैनें पैरवी की सत्य की
तब से उसने बात करनी बन्द की

ये अँगुलीमाल है इस दौर के
काट लेंगे उंगलियाँ ये बुद्ध की

पेड़ तक है किस सलीके से खड़े
आहटें कुछ खास है नेपथ्य की

सामने है प्रेम की विरदावली
पीठ पीछे है तैयारी युद्ध की

खेत सींचा, ना तो बिजली ही मिली
आपने नाहक नदी अवरुद्ध की

हर ग़ज़ल की थी समर्पण आपको
हर ग़ज़ल फिर आप ही ने रद्द की

शौक रखते पर-पीड़ा का जो 'भुवन'
उनको सूझे और किस आनन्द की

वो हमें 'निस्तेज' कहकर जो गये
थी कहानी 'टाट के पैबन्द' की ।
===================निस्तेज

Wednesday, October 12, 2011

ग़ज़ल

बेजुबां पत्थर हवा से कर रहे सरगोशियाँ
कब तलक खामोश रहती थी भला खामोशियाँ

हुक्मरां सुनते कहाँ ये मुफ़लिसी की सिसकियाँ
बारहा ख़ारिज हुई है अर्जियों पे अर्जियाँ

आजकल गर बाढ ना हो तो नदी दिखती नहीं
है यही दौर-ए-तरक्की आप क्या समझे मियाँ

ये शहर, आबोहवा या है जमाने का असर
दिल में रंजिश ले के बैठे बाग में गुल तितलियाँ

माज़रा कुछ और है या है मुहब्बत ही ज़नाब
है गले मिलने को आतुर गर्दनें और आरियाँ

मैं नहीं वो मौसमों के संग जो बदले मिजाज
क्या जलाती गर्मियां और क्या ठिठुरती सर्दियाँ ।
======================निस्तेज

ग़ज़ल

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धुआँ धुआँ सा लगे है मुझे ता हद्दे नजर
जला है शहर या है दौरे तरक्की का असर

मेरी है राह किधर और मेरी मंजिल है किधर
मुझे न कुछ भी पता और ना कोई है खबर

कई दिनों से नदी फिर रही थी प्यास लिये
उसे नहीं थी खबर संगदिल बडा है नहर

दिलो ज़हन में यही ख़ौफ़ है तू दूर न हो
कि मैं जिउंगा किधर और साँस लूंगा किधर

वो एक बार फकत सामने मेरे जो दिखा
लगा कि चाँद जमीं पर अभी आया है उतर

तू आजमा ले मुझे और मेरी फितरत को भी
तुझे मैं आजमा सकूं नहीं चाहूं भी अगर

सभी के घर थे सभी घर भी चले शाम ढली
वहीं खड़ा सा ठगा सा रहा वो एक शज़र ।
===================== भुवन निस्तेज