Monday, July 5, 2021

हाइकु

१ 
ऐला वर्ष लै 
फाट्या लुकुरा लौनी: 
गो:रा झानी रै । 

२ मेरा गौं-घर 
तो लोग्या औंथ्यो कस्याँ 
काठा छाछट्ट । 

Monday, April 15, 2013

ग़ज़ल

जहाँ तू बज़्म में बैठा रहेगा
वो कोना आईना बनता रहेगा 

हवा की चाह है बुझना पड़ेगा
दीये की जिद है वो जलता रहेगा

 यहाँ पर नामो-शोहरत की घुटन है
 यहाँ क्या आदमी जिन्दा रहेगा 

 उसे ऊँचाइयों से क्या हो हाशिल
 गिरेगा तो ही ये झरना रहेगा 

 वो पिछली बारिशों का है सताया
 सिराहने जिसके ये छाता रहेगा

 जिसे हो रास आयी हुक़्मरानी
 वो किसका है भला तेरा रहेगा 

तिरी यादें कहाँ तक साथ देंगी 
सफर में साथ ये छाला रहेगा 

ये पत्थर भी यहाँ पर बोलते हैं
तू है 'निस्तेज' तू गूंगा रहेगा 

 निस्तेज

Friday, October 14, 2011

ग़ज़ल

------
ग़ज़ल
------
साज़े दिल धुन छेडता है दर्द की
अब ग़ज़ल ही है दवा हर मर्ज़ की

जब से मैनें पैरवी की सत्य की
तब से उसने बात करनी बन्द की

ये अँगुलीमाल है इस दौर के
काट लेंगे उंगलियाँ ये बुद्ध की

पेड़ तक है किस सलीके से खड़े
आहटें कुछ खास है नेपथ्य की

सामने है प्रेम की विरदावली
पीठ पीछे है तैयारी युद्ध की

खेत सींचा, ना तो बिजली ही मिली
आपने नाहक नदी अवरुद्ध की

हर ग़ज़ल की थी समर्पण आपको
हर ग़ज़ल फिर आप ही ने रद्द की

शौक रखते पर-पीड़ा का जो 'भुवन'
उनको सूझे और किस आनन्द की

वो हमें 'निस्तेज' कहकर जो गये
थी कहानी 'टाट के पैबन्द' की ।
===================निस्तेज

Wednesday, October 12, 2011

ग़ज़ल

बेजुबां पत्थर हवा से कर रहे सरगोशियाँ
कब तलक खामोश रहती थी भला खामोशियाँ

हुक्मरां सुनते कहाँ ये मुफ़लिसी की सिसकियाँ
बारहा ख़ारिज हुई है अर्जियों पे अर्जियाँ

आजकल गर बाढ ना हो तो नदी दिखती नहीं
है यही दौर-ए-तरक्की आप क्या समझे मियाँ

ये शहर, आबोहवा या है जमाने का असर
दिल में रंजिश ले के बैठे बाग में गुल तितलियाँ

माज़रा कुछ और है या है मुहब्बत ही ज़नाब
है गले मिलने को आतुर गर्दनें और आरियाँ

मैं नहीं वो मौसमों के संग जो बदले मिजाज
क्या जलाती गर्मियां और क्या ठिठुरती सर्दियाँ ।
======================निस्तेज

ग़ज़ल

-------
धुआँ धुआँ सा लगे है मुझे ता हद्दे नजर
जला है शहर या है दौरे तरक्की का असर

मेरी है राह किधर और मेरी मंजिल है किधर
मुझे न कुछ भी पता और ना कोई है खबर

कई दिनों से नदी फिर रही थी प्यास लिये
उसे नहीं थी खबर संगदिल बडा है नहर

दिलो ज़हन में यही ख़ौफ़ है तू दूर न हो
कि मैं जिउंगा किधर और साँस लूंगा किधर

वो एक बार फकत सामने मेरे जो दिखा
लगा कि चाँद जमीं पर अभी आया है उतर

तू आजमा ले मुझे और मेरी फितरत को भी
तुझे मैं आजमा सकूं नहीं चाहूं भी अगर

सभी के घर थे सभी घर भी चले शाम ढली
वहीं खड़ा सा ठगा सा रहा वो एक शज़र ।
===================== भुवन निस्तेज

Thursday, July 7, 2011

गजल

बश्र जो सरफिरा नहीं होता
दर्द उसको पता नहीं होता

अब तू तन्हाइयों की आदत रख
हर जगह आइना नहीं होता

ग़र खुदा है तो है जमीं पर ही
आसमां में खुदा नहीं होता

जूस्तजूँ जिसकी है नहीं मिलता
और कुछ ढूँढना नहीं होता ।

Saturday, February 5, 2011

ग़ज़ल

निस्तेज

क्या हक़ीकत क्या फ़साना
आप से अब क्या छुपाना

बात तो कुछ और ही है
बन रहा है क्या बहाना

देखकर तुमको लगा है
सीख लेंगे मुस्कुराना

याद तब तब आ गये वो
सांस छेडे जब तराना ।

Thursday, January 21, 2010

ग़ज़ल


घर हमारा जलाया गया
जश्न भी तो मनाया गया

रात में रोशनी ला रहे
जुगनुओं को डराया गया

है सियासत बड़ी संगदिल
प्यार भी ना समाया गया

खास हैं हम की मिटते नहीं
सौ दफे आजमाया गया

फिर ग़ज़ल दर्द से भर गयी
फिर वही दर्द गाया गया

निस्तेज

गजल

चुभने लगी है चांदनी भी नज़रों में आजकल
निकलूँ भला मैं कैसे दुपहरों में आजकल

मेरी तरफ न देख सनम शक की निगाह से
सबसे बड़ा ज़हर है यही जहरों में आजकल

घर तक मेरे पहुँच ही गयी रह पूछकर
बदलाव आगया है क्या लहरों में आजकल

सूखी नदी में नाव लिये कर रहे हो क्या
पानी चला गया है कहीं नहरों में आजकल

है मेरे इर्द-गिर्द कड़ी रोबोट मशीनें
इंसान का अकाल पडा शहरों में आजकल

किस किस को चैन देती भला कम है अशर्फियाँ
हम चैन ढूँढ़ते हैं तभी बहरों में आजकल


निस्तेज

Tuesday, January 19, 2010

दौड़ में जीतेंगे लंगड़े घुड़सवारों से
तब सुलह होगी हमारी इन बहारों से

ये दीया बुझ भी गया तो मैं न हारूंगा
रोशनी लेता रहा हूँ मैं सितारों से

वो भला क्या इस लहर का समझे व्याकरण
जो हमेशा से है चिपका बस किनारों से

कौन सुनता कुछ कहा था बेजुबानों ने
सत्य ले आकर जब यूँ शोर-नारों से

बस हमीं सुनते रहे है किन किताबों में
कुछ गिले हम भी करेंगे आज यारों से

किस तरह 'निस्तेज' हूँ क्या पूछिए जनाब
सर पटकते थक गया हूँ मैं दीवारों से

१२ जनवरी २००९

Monday, January 18, 2010

गजल

घर हमारे रोज दीमक खा रहे हैं
"ठीक है सब" आप क्या फरमा रहे हैं

बंद है ये द्वार कबसे इन् घरों के
खिडकियों से क्यों बुलावे आ रहे हैं

बाढ़ में डूबा कभी था बाग ये ही
आज बादल क्यों इसे तरसा रहे हैं

संगदिल है यार कितना पूछिए मत
ये तो हम हैं प्यार करते जा रहे हैं

बुद्ध , जिनसे मैनें सिखी प्रेमगीता
आज वो बन्दूक क्यों उठवा रहे हैं

चीर डाला, फाड डाला, मार डाला
इस 'भुवन' में जाने वो क्या पा रहे हैं

निस्तेज