Thursday, January 21, 2010

गजल

चुभने लगी है चांदनी भी नज़रों में आजकल
निकलूँ भला मैं कैसे दुपहरों में आजकल

मेरी तरफ न देख सनम शक की निगाह से
सबसे बड़ा ज़हर है यही जहरों में आजकल

घर तक मेरे पहुँच ही गयी रह पूछकर
बदलाव आगया है क्या लहरों में आजकल

सूखी नदी में नाव लिये कर रहे हो क्या
पानी चला गया है कहीं नहरों में आजकल

है मेरे इर्द-गिर्द कड़ी रोबोट मशीनें
इंसान का अकाल पडा शहरों में आजकल

किस किस को चैन देती भला कम है अशर्फियाँ
हम चैन ढूँढ़ते हैं तभी बहरों में आजकल


निस्तेज

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