Thursday, January 21, 2010

ग़ज़ल


घर हमारा जलाया गया
जश्न भी तो मनाया गया

रात में रोशनी ला रहे
जुगनुओं को डराया गया

है सियासत बड़ी संगदिल
प्यार भी ना समाया गया

खास हैं हम की मिटते नहीं
सौ दफे आजमाया गया

फिर ग़ज़ल दर्द से भर गयी
फिर वही दर्द गाया गया

निस्तेज

गजल

चुभने लगी है चांदनी भी नज़रों में आजकल
निकलूँ भला मैं कैसे दुपहरों में आजकल

मेरी तरफ न देख सनम शक की निगाह से
सबसे बड़ा ज़हर है यही जहरों में आजकल

घर तक मेरे पहुँच ही गयी रह पूछकर
बदलाव आगया है क्या लहरों में आजकल

सूखी नदी में नाव लिये कर रहे हो क्या
पानी चला गया है कहीं नहरों में आजकल

है मेरे इर्द-गिर्द कड़ी रोबोट मशीनें
इंसान का अकाल पडा शहरों में आजकल

किस किस को चैन देती भला कम है अशर्फियाँ
हम चैन ढूँढ़ते हैं तभी बहरों में आजकल


निस्तेज

Tuesday, January 19, 2010

दौड़ में जीतेंगे लंगड़े घुड़सवारों से
तब सुलह होगी हमारी इन बहारों से

ये दीया बुझ भी गया तो मैं न हारूंगा
रोशनी लेता रहा हूँ मैं सितारों से

वो भला क्या इस लहर का समझे व्याकरण
जो हमेशा से है चिपका बस किनारों से

कौन सुनता कुछ कहा था बेजुबानों ने
सत्य ले आकर जब यूँ शोर-नारों से

बस हमीं सुनते रहे है किन किताबों में
कुछ गिले हम भी करेंगे आज यारों से

किस तरह 'निस्तेज' हूँ क्या पूछिए जनाब
सर पटकते थक गया हूँ मैं दीवारों से

१२ जनवरी २००९

Monday, January 18, 2010

गजल

घर हमारे रोज दीमक खा रहे हैं
"ठीक है सब" आप क्या फरमा रहे हैं

बंद है ये द्वार कबसे इन् घरों के
खिडकियों से क्यों बुलावे आ रहे हैं

बाढ़ में डूबा कभी था बाग ये ही
आज बादल क्यों इसे तरसा रहे हैं

संगदिल है यार कितना पूछिए मत
ये तो हम हैं प्यार करते जा रहे हैं

बुद्ध , जिनसे मैनें सिखी प्रेमगीता
आज वो बन्दूक क्यों उठवा रहे हैं

चीर डाला, फाड डाला, मार डाला
इस 'भुवन' में जाने वो क्या पा रहे हैं

निस्तेज